domenica 15 aprile 2012

गुरु और शिष्य



एक बार दुर्वासा जी को अतिथि होने की बात जँच गयी। वे कहने लगेः "है कोई माई का लाल ! दुर्वासा को अपना मेहमान बना ले?"



लोगों ने देखा कि 'दुर्वासा जी तो ब्रह्मज्ञानी तो हैं परन्तु जरा-जरा बात में क्रोधित हो जाते हैं और बम-गोला भी कुछ मायना नहीं रखता ऐसा शाप दे डालते हैं। अपने यहाँ पर मेहमान रखने पर यश, आशीर्वाद तो बहुत मिलेगा परंतु नाराज हो जायेंगे तो शाप भी भयंकर मिलेगा। इसलिए यक्ष, गंधर्व, देवता आदि किसी ने भी हिम्मत नहीं की उन्हें मेहमान बनाने की।



दुर्वासा जी सब लोक-लोकांतर में घूमे, किंतु यक्ष, गंधर्व, किन्नर यहाँ तक कि देवता लोग भी साहस न जुटा सके। आखिर वे धरती पर आये और विचरण करते हुए कहने लगेः " है कोई ईश्वर का प्यारा ! है कोई हिम्मतवाला ! जो दुर्वासा को अपना अतिथि बनाये? शर्त भी सुन लो कि जब चाहूँ आऊँ, जब चाहूँ जाऊँ, जो चाहूँ सो खाऊँ, औरों को खिलाऊँ, घर की चीज लुटाऊँ। इसके लिए बाहर से तो मना नहीं करेगा परंतु मन से भी रोकेगा-टोकेगा तो शाप दूँगा, शाप! है कोई हरि का प्यारा ! संत का दुलारा ! जो दुर्वासा को अपना अतिथि बनाये?"



अब कौन रखे? जब आयें, जैसे आयें, जिनको लायें, भोजन तैयार चाहिए। जितना खायें, जितना दें, जितना लुटायें, कोई कुछ न कहे? बाहर से तो न कहे परंतु मन से भी जरा भी इधर-उधर न सोचे। अगर सोचता हुआ दिखेगा तो भयंकर शाप दे देंगे। दुर्वासा जी जैसे महापुरुष को अपने यहाँ रखकर कौन संकट मोल ले?



कभी आ गये तो उनके दस हजार शिष्य इकट्ठे हो गये, खाना बनाओ। चलो, हम नहा कर आते हैं, नहाने गये तो गये। फिर कब आते हैं, कोई पता नहीं। अंबरीष जैसे राजा ने इंतजार करते-करते बारस के दिन पारणे के वक्त थोड़ा जल पी लिया और दुर्वासाजी जरा देर-से पहुँचे। आते ही बोल उठेः

"हमारे आने के पहले तूने जल पी लिया? जा हम तुझे शाप देते हैं।" - भागवत में कथा आती है।

शाप देने में प्रसिद्ध थे दुर्वासाजी। अब ऐसे दुर्वासा जी को पुण्यलाभ के लिए, यश लाभ के लिए अतिथि रखना तो कई चाहते हैं परन्तु हिम्मत किसी की नहीं हो रही। आखिर घूमते-घूमते द्वारिका पहुँचेः "है कोई हरि का प्यारा ! संतों का दुलारा ! है कोई धरती पर माई का लाल ! दुर्वासा ऋषि को अपना अतिथि बनाने की है किसी की ताकत?"



द्वारिका में ठीक चौराहे पर जाकर यही पुकारने लगे, जिससे श्रीकृष्ण के कानों तक आवाज पहुँचे। उनको तो मौज लेनी थी, बाँटना था। 'ब्रह्मज्ञान क्या होता है? जीवात्मा कितना स्वतंत्र है? तप में कितना सामर्थ्य है?' यह समझाने की, उनके उपदेश की यही रीति थी।



ज्ञानी का स्वनिर्मित विनोद होता है। कौन ज्ञानी, किस विनोद से, कैसे, किसका कल्याण कर दे, उसकी कोई मापतौल हम नहीं निकाल सकते हैं। शाप देकर भी कल्याण, प्यार देकर भी कल्याण, वस्तु देकर भी कल्याण, वस्तु लेकर भी कल्याण.... ऐसे होते हैं ज्ञानवान !



मनु महाराज राजा इक्ष्वाकु से कहते हैं कि 'हे राजन् ! ज्ञानवान सर्वदा नमस्कार करने और पूजने योग्य हैं। जिस स्थान पर ज्ञानवान बैठते हैं, उस स्थान को भी नमस्कार है। जिससे वे बोलते हैं, उस जिह्वा को भी नमस्कार है। जिस पर ज्ञानवान दृष्टि डालते हैं, उसको भी नमस्कार है।'

अगर श्रेष्ठ पुरुष वस्तु नहीं ले तो फिर देने वाला कहाँ देगा?



'श्री महाभारत' में लिखा है कि दान देना तो पुण्यदायी है, परंतु उत्तम पुरुष दान न ले तो दान व्यर्थ हो जाता है। जो लोभी है, क्रोधी है, कामी है, कपटी है, पातकी है, पापी है, ऐसों को दिया गया दान व्यर्थ हो जाता है। हाँ लाचार है, मोहताज है तो दया करना अलग बात है परंतु दान तो श्रेष्ठ पुरुषों को ही दिया जाता है। जो भजन करते हैं, करवाते हैं, जो शुभ करते हैं, करवाते हैं।



भीष्म जी युधिष्ठिर महाराज को कहते हैं कि "दाता को दान देने में जो पुण्य होता है, उत्तम गृहीता को लेने में भी वही पुण्य होता है। ऐसे तो दान लोहे का चना है। परंतु गृहीता उत्तम है, दान की वस्तु ली और उसका ठीक से उपयोग कर दिया तो दाता को जो पुण्य होता है, वही गृहीता को भी होता है।" दुर्वासाजी ऐसे महापुरुष थे। अपनी योगलीला से, योगबल से विचरण करते थे ज्ञान की मस्ती में.. उन्होंने इस तरह से आवाज लगायी कि द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण सुनें।



'है कोई माई का लाल !' माई का लाल, यशोदा का लाल, देवकी का लाल तो वहाँ मौजूद है। सारे लोकों के लालों का लाल दिलबर लाल है, कन्हैया लाल है, वहाँ दुर्वासा जी टेर लगायें और कोई लाल प्रकट न हों यह श्रीकृष्ण कैसे देख लेंगे? श्री कृष्ण कैसे चुपके से बैठे रहेंगे? चुनौती मिल रही है कि "है कोई धरती पर माई का लाल ! श्री कृष्ण ने ध्यान से सुना कि कौन है? देखा तो दुर्वासा जी ! आज तो दुर्वासा जी को अतिथि रखने की चुनौती मिल रही है।



'जब आऊँ, जब जाऊँ, जो चाहूँ, जहाँ चाहूँ, जितना चाहूँ खाऊँ, जिनको चाहूँ खिलाऊँ, जिनको चाहूँ, जो चाहूँ दूँ, जितना भी लुटाऊँ, जो भी लुटाऊँ, जैसा करूँ, जितना भी करूँ, जब भी करूँ, न कोई रोके न कोई टोके। बाहर से तो क्या मन से भी रोकेगा-टोकेगा तो शाप दूँगा। सुन ले, है कोई माई का लाल ! जो मुझे अतिथि रखता है तो आ जाय।'



श्रीकृष्णजी आये और बोलेः "महाराज ! यह है।"

दुर्वासाजीः "मेरी शर्त है।"

"महाराज ! आपने जो कहीं वे सभी स्वीकार हैं और जो भूल गये हों या जितनी भी और शर्तें हों वे भी स्वीकार हैं।"

महाराज ! ये तो ठीक है परंतु घर का सामान किसी को दूँ, किसी को दिलाऊँ, चाहे जलाऊँ... अपनी शर्त में ऐसा भी रख दीजिए। घर का सामान उठाकर देनेवाला कोई मिलेगा तो आप दोगे, आप उठा तो नहीं सकोगे। आप चाहें तो घर को भी जला दें तो भी हमारे मन में कभी क्षोभ नहीं होगा, महाराज ! आइये, हमारे अतिथि बनिये।"



जहाँ कृष्ण थे, वहाँ महाराज थे। अब दोनों महाराज मिल गये।

दोनों की सूरत एक है किसको खुदा कहें?

तुझे खुदा कहें कि उसे खुदा कहें?

दुर्वासाजी को धरती पर प्रकाश करना था की जीवात्म अपने परमात्मा में स्थित हो जाय। दुर्वासा ऋषि आये, एक दो दिन रहे.... उनको तो करनी थी कुछ लीला। कहीं भोजन में नमक कम हो तो चिल्लावें, झूठ कैसे बोलें? यहाँ तो सब ठीक-ठाक था।



दुर्वासा जीः "अच्छा, तो हम अभी जायेंगे और थोड़ी देर में आयेंगे। हमारे जो भगत होंगे उनको भी लायेंगे। भोजन तैयार हो।"



दुर्वासाजी जायें, आयें तो भोजन तैयार मिले। किसी को बाँटें, बँटवायें.... ऐसा-वैसा करें। फिर भी देखा कि 'श्रीकृष्ण किसी भी गलती में नहीं आते परंतु मुझे लाना है। श्रीकृष्ण को अच्छा नहीं लगे अथवा रुक्मिणी को अच्छा नहीं लगे - ऐसा कुछ करना है। शर्त है कि 'ना' बोल देंगे अथवा अंदर से भी कुछ बोल देंगे तो फिर मैं शाप दूँगा।'

श्रीकृष्ण को शाप देने का मौका ढूँढ रहे थे। सती अनुसूयाजी के पुत्र दुर्वासा ऋषि कैसे हैं!



एक दिन दोपहर के समय दुर्वासाजी विचारने लगे कि 'सब सेवा-चाकरी ठीक से हो रही है। जो माँगता हूं, तैयार मिलता है। जो माँगता हूँ या तो प्रकट कर देते हैं या फिर सिद्धि के बल से धर देते हैं। सब सिद्धियाँ इनके पास मौजूद हैं, 64 कलाओं के जानकार हैं। अब ऐसा कुछ करें कि श्रीकृष्ण नाराज हो जायें।'

घर का सारा लकड़ी का सामान इकट्ठा किया। फिर आग लगा दी और जटाएँ खोलकर बोलेः "होली रे होली.... कृष्ण ! देखो, होली जल गयी।"

कृष्णः "हाँ, गुरुजी ! होली रे होली...."



गुरु तो पक्का परंतु चेला भी पक्का... "हाँ गुरुजी।" श्रीकृष्ण चेला बनने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखते हैं ! कोई इन्कार नहीं, कोई फरियाद नहीं।

अरे, कृष्ण ! ये सब लकड़ी का सामान जल रहा है तेरा !

"हाँ ! मेरी सारी सृष्टियाँ कई बार जलती हैं, कई बार बनती हैं, गुरुजी ! होली रे होली !"

"कृष्ण ! हृदय में चोट नहीं लगती है?"

"आप गुरुओं का प्रसाद है तो चोट क्यों लगेगी?"



'अच्छा ! कृष्ण फँसे नहीं, ये तो हँस रहे हैं। ठीक है, मेरा नाम भी दुर्वासा है।' मन में ठान लिया दुर्वासा जी ने।

ऐसा करते-करते मौका देखकर एक दिन दुर्वासा जी बोलेः "हम नहाने जा रहे हैं।"

कृष्णः "गुरुजी ! आप आयेंगे तो आपके लिए भोजन क्या होगा?"

"हम नहाकर आयेंगे तब जो इच्छा होगी बोल देंगे, वही भोजन दे देना।"

दुर्वासा जी ने सोचा 'पहले बोलकर जायेंगे तो सब तैयार मिलेगा। आकर ऐसी चीज माँगूगा जो घर में तैयार न हो। कृष्ण लेने जायेंगे या मँगवायेंगे तो मैं रूठ जाऊँगा...'

दुर्वासा जी नहाकर आये और बोलेः "मुझे ढेर सारी खीर खाना है।"

श्रीकृष्ण बड़ा कड़ाह भरकर ले आयेः "लीजिए, गुरुजी !"

"अरे, तुमको कैसे पता चला?"



आप यही बोलनेवाले हैं, मुझे पता चल गया तो मैंने तैयार करके रखवा दिया। जहाँ से आपका विचार उठता है वहाँ तो मैं रहता हूँ। आपको कौन-सी चीज अच्छी लगती है? आप किस समय क्या माँगेंगे? यह तो आपके मन में आयेगा न? मन में आयेगा, उसकी गहराई में तो हम हैं।"

"तुम्हीं गहराई में रहते हो? हम नहीं रहते हैं?"

"आप और हम दिखते दो हैं, हैं तो एक ही।"

"अच्छा, एक हैं। एक तुम, एक हम। तो एक और एक दो हो गये?"

नहीं, एकमेव अद्वितीय है। एक और एक दो नहीं, वही एक है।"



जैसे एक घड़े का आकाश, दूसरे घड़े का दूसरा आकाश, तीसरे घड़े का तीसरा आकाश... तीन आकाश हुए? नहीं, आकाश तो एक ही है। एकमेव अद्वितीय है। जैसे, तरंगे कई हैं परंतु पानी एक है। पंखे, फ्रिज, कूलर, हीटर, गीज़र... सब अलग-अलग हैं परंतु विद्युत एक की एक, ऐसे ही एकमेव अद्वितीय है वह परमात्मा।



जिस सत्ता से माँ की आँख प्रेम से देखती है, उसी सत्ता से बच्चे की आँख भी स्नेह से निहारती है। जिस सत्ता से पत्नी देखती है उसी सत्ता से पति देखता है, आँखें भले अलग-अलग हैं, मन के विचार और विकार अनेक हैं परंतु आत्मसत्ता एक ही है। सारी मानव जाति उसी परमात्मा की सत्ता से देखती है। सारे मानव, सारी गायें, सारे पशु, सारे पक्षी... उसी चैतन्य की सत्ता से देखते हैं। उसी में श्रीकृष्ण ज्यों-के-त्यों हैं। उनकी प्रेमावतार की लीला है और दुर्वासा जी की शापावतार की लीला है। लीला अलग-अलग है, परंतु लीला का सामर्थ्य और दृष्टा एक ही है।



दुर्वासाजी खीर खा रहे हैं। देखा कि रुक्मिणी हँस रही है। "अरे ! क्यों हँसी? रुक्मिणी की बच्ची?"

"गुरुजी ! आप तो महान हैं, परन्तु आपका चेला भी कम नहीं है। आप माँगेगे खीर... यह जानकर उन्होंने पहले से ही कह दिया कि खीर का कड़ाह तैयार रखो। थोड़ी बनाते तो डाँट पड़ती... आप आयेंगे और ढेर सारी खीर माँगेगे तो इस कड़ाहे में खीर भी ढेर सारी है। जैसा आपने माँगा, वैसा हमारे प्रभु ने पहले से ही तैयार रखवाया है। इस बात की हँसी आती है।"



"हाँ, बड़ी हँसती है सफलता दिखती है तेरे प्रभु की?" इधर आ।

रुक्मिणीजी आयीं तो दुर्वासाजी ने रुक्मिणी की चोटी पकड़ी और उनके मुँह पर खीर मल दी।

अब कोई पति कैसे देखे कि कोई बाबा पत्नी की चोटी पकड़ कर उसे 'बंदर छाप' बना रहा है? थोड़ा बहुत कुछ तो होगा कि 'यह क्या?' अगर थोड़ी भी शिकन आयेगी चेहरे तो सेवा सब नष्ट और शाप दूँगा, शाप।' यह शर्त थी।



दुर्वासाजी ने श्रीकृष्ण की ओर देखा तो श्रीकृष्ण के चेहरे पर शिकन नहीं है। अन्दर से कोई रोष नहीं है। श्री कृष्ण ज्यों-के-त्यों खड़े हैं।

"श्री कृष्ण ! कैसी लगती है ये रुक्मिणी?"

"हाँ, गुरुजी ! जैसी आप चाहते हैं, वैसी ही लगती है।"

अगर 'अच्छी लगती है' बोलें तो है नहीं और 'ठीक नहीं लगती' बोलें तो गलती है। इसलिए कहाः "गुरुजी ! जैसा आप चाहते हैं, वैसी लगती है।"



अरे ! ज्ञाननिधि हैं श्रीकृष्ण तो ! पढ़ने लिखने से श्रीकृष्ण का पता थोड़े ही चलता है? जितना तुम कृष्ण-तत्त्व में जाओ, उतना ही कृष्ण का छुपा हुआ अमृत प्रकट होता है।



दुर्वासाजी ने देखा कि पत्नी को ऐसा किया तो भी कृष्ण में कोई फर्क नहीं पड़ा। रुक्मिणी तो अर्धांगिनी है। कृष्ण को कुछ गड़बड़ करें तो रुक्मिणी के चेहरे पर शिकन पड़ेगी ऐसा सोचकर कृष्ण को बुलायाः

"कृष्ण ! यह खीर बहुत अच्छी है।"

"हाँ, गुरुजी ! अच्छी है।"

"तो फिर क्या देखते हो? खाओ।"

श्रीकृष्ण ने खीर खायी।

"इतना ही नहीं, सारे शरीर को खीर लगाओ। जैसे मुलतानी मिट्टी लगाते हैं ऐसे पूरे शरीर को लगाओ। घुँघराले बालों में लगाओ। सब जगह लगाओ।"

"हाँ, गुरुजी।"

"कैसे लग रहे हो, कृष्ण?"

"गुरुजी, जैसा आप चाहते हैं वैसा।"

दुर्वासा जी ने देखा कि 'अभी-भी ये नहीं फँसे। क्या करूँ?' फिर बोलेः

"मुझे रथ में बैठना है, रथ मँगवाओ। नहाना नहीं, ऐसे ही चलो।" रथ मँगवाया।

दुर्वासाजी बोलेः "घोड़े हटा दो।" घोड़े हटा दिये गये। "मैं रथ में बैठूँगा। एक तरफ रुक्मिणी, एक तरफ श्री कृष्ण, रथ खींचेगे।"

दुर्वासाजी को हुआ 'अब तो ना बोलेंगे कि ऐसी स्थिति में? खीर लगी हुई है, रुक्मिणी भी बनी हुई है 'हनुमान कंपनी।'



परंतु दोनों ने रथ खींचा। मैंने कथा सुनी है कि जैसे, घोड़े को चलाते हैं ऐसे उनको चलाया। रथ चौराहे पर पहुँचा। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी कि 'श्रीकृष्ण कौन-से बाबा के चक्कर में आ गये?'

अब बाबा क्या हैं यह श्रीकृष्ण जानते हैं और श्रीकृष्ण क्या हैं यह बाबा जितना जानते हैं उतना श्रीकृष्ण के बेटे या पोते भी नहीं जानते। अरे ! श्रीकृष्ण के साथी भी श्रीकृष्ण को उतना नहीं जानते होंगे जितना दुर्वासा जी जानते हैं क्योंकि दुर्वासाजी अपने को जानते हैं। वे तो मोह से पार थे, देहाध्यास से पार थे।



ब्रह्मवेत्ता जितना अपने को जानता है उतना ही दुनिया को ठीक से जानता है और अज्ञानी अपने को ही ठीक से नहीं जानता तो दुनिया को क्या जानेगा? वह भले बाहर से बाल की खाल उतारे दे। परंतु तत्त्वरूप से तो ज्ञानी, ज्ञानी होता है।



लोगों ने देखा कि 'यह क्या ! दुर्वासाजी रथ पर बैठे हैं। खीर और पसीने से तरबतर श्री कृष्ण और रुक्मिणी जी दोनों रथ हाँक रहे हैं? मुँह पर, सर्वांग पर खीर लगी हुई है?'



लोगों को श्रीकृष्ण पर तरस आया कि "कैसे बाबा के चककर में आ गये हैं?" परंतु श्रीकृष्ण अपने को दीन-हीन नहीं मान रहे। श्री कृष्ण जानते हैं-

विनोदमात्र व्यवहार जिसका ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण।

'जिसका व्यवहार विनोदमात्र हो, वह ब्रह्मवेत्ता है।'



द्वारिका के लोग इकट्ठे हो गये, चौराहे पर रथ आ गया है फिर भी श्रीकृष्ण को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है? दुर्वासाजी उतरे और जैसे, घोड़े को पुचकारते हैं वैसे ही पुचकारते हुए पूछाः "क्यों रुक्मिणी ! कैसा रहा?"

"गुरुजी आनंद है।"

"कृष्ण ! कैसा रहा?"

"जैसा आपको अच्छा लगता है, वैसा ही अच्छा है।"

जो तिद भावे सो भलीकार... जो ब्रह्म को अच्छा लगे वह अच्छा है।



दुर्वासाजी ने श्रीकृष्ण से कहाः "कृष्ण ! मैं तुम्हारी सेवा पर, समता पर, सजगता पर, सूझबूझ पर प्रसन्न हूँ। परिस्थितियाँ सब माया में हैं और मैं मायातीत हूँ, तुम्हारी ये समझ इतनी बढ़िया है कि इससे मैं बहुत खुश हूँ। तुम जो वरदान माँगना चाहो, माँग लो। परंतु देखो कृष्ण ! तुमने एक गलती की। मैंने कहा खीर चुपड़ो, तुमने खीर सारे शरीर पर चुपड़ी पर हे कन्हैया ! पैरों के तलुओं पर नहीं चुपड़ी। तुम्हारा सारा शरीर अब वज्रकाय हो गया है। इस शरीर पर अब कोई हथियार सफल नहीं होगा, परंतु पैरों के तलुओं का ख्याल करना। पैरों के तलुओं में कोई बाण न लगे, क्योंकि तुमने वहाँ मेरी जूठी खीर नहीं लगायी है।"



श्रीकृष्ण को शिकारी ने मृग जानकर बाण मारा और पैर के तलुए में लगा। और जगह लगता तो कोई असर नहीं होता। युद्ध के मैदान में श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ चला रहे थे वहाँ पर शत्रु पक्ष के बाणों का उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था।

दुर्वासाजीः "क्या चाहिए, कृष्ण?"

"गुरुजी ! आप प्रसन्न रहें।"

"मैं तो प्रसन्न हूँ, परंतु कृष्ण ! जहाँ कोई तुम्हारा नाम लेगा वहाँ भी प्रसन्नता हाजिर हो जायेगी, वरदान देता हूँ."

domenica 4 aprile 2010


Ek tera sahara kaafi hai,mujhe aur sahare nahi chahiye
ek tera kinara kaafi hai,,,,,,,,,,,,,

domenica 22 febbraio 2009

Welcome to Divya vaani

Hari om ji,

I welcome all the sadhaks of Pujya Bapu Aasa Ram ji
This blog is created for spreading the divine thoughts of Pujya Bapu ji.
So all the type of suggesstions and advises are always welcomed.

Hari om ji

Deepak